प्रबंध तिसरा -
पनाळागडी फार महर्ग जालें।
बहु विस्व तेणें गुणें वाज्य आलें।
कधी देव पावेल काही कळेना।
कदा धुंडिल्या येक दाणा मिळेना।।१।।
गुरें विकीली सर्वं वस्त्रे च पात्रे।
भटे विकीली सोवळी वोली वस्त्रें।
कधी देव पावेल काही कळेना।
कदा धुंडिल्या येक दाणा मिळेना।।२।।
किती विकीली जेन झोरें चवाळी।
किती धाबळा माळ चंबू गबाळी।
कधी देव पावेल काही कळेना।
कदा धुंडिल्या येक दाणा मिळेना।।३।।
किती उखळे मुसळे सुप पाट्या।
किती विकिले झाडुनी कुंप काट्या।
कधी देव पावेल काही कळेना।
कदा धुंडिल्या येक दाणा मिळेना।।४।।
कितीयेक जाती किती खल्लबते।
तर्ही ते नव्हें काम काहीच फत्ते।
कधी देव पावेल काही कळेना।
कदा धुंडिल्या येक दाणा मिळेना।।५।।
कितीयेक तर्वार ढाला कटारा।
कितेकी सुऱ्या कातऱ्या त्या अपारा।
कधी देव पावेल काही कळेना।
कदा धुंडिल्या येक दाणा मिळेना।।६।।
कितेकी च सिलें च भाले विकिले।
कितेकी किती उंट घोडे विकिले।
कधी देव पावेल काही कळेना।
कदा धुंडिल्या येक दाणा मिळेना।।७।।
कितेकी मुद्या कुडक्या त्या विकील्या।
कितेकी किती आगड्या त्या विकील्या।
कधी देव पावेल काही कळेना।
कदा धुंडिल्या येक दाणा मिळेना।।८।।
स्त्रियांचे अलंकार नानापरीचे।
किती थोर थोरांची त्या सुंदरीचे।
कधी देव पावेल काही कळेना।
कदा धुंडिल्या येक दाणा मिळेना।।९।।
असे संकटी रक्षिलें तां दिनासी।
किती आठवु प्रत्ययो तो मनासि।
धरुनि करी उतरिले अनाथा।
लिळे पार तां पावविले समर्था।।१०।।
(इंदुरबोधन बाड क्र. ४, २५, डोमगाव बाड क्र. ३)
(साभार- प्रशांत रघुनाथ सबनीस, सज्जनगड)