स्मशानवासी, विघ्नविळासी, विभवविनाशी उमापती।
सपार्वती ज्या वसे पर्वती, तया पर्वती जन म्हणती।।धृ।।
धनी शिकंदर, विलास सुंदर, राज्यधुरंधर नानांनी।
पुण्यग्रामा रूपा आणुनि, केली आपुली नृपधानी।।
शौर्यशालिना, समरखेलिना, महाराष्ट्रभू हृदयमणी।
पुण्यपुरी ही भली वसविली, दख्खनची म्हणती राणी।।
भयात संजीवनी मानिनी, मर्द मराठ्यांची जननी।
सुहासिनी सद्भाग्यशालिनी लावण्याची नवखाणी।।
सह्यगिरी कडे, बघुनी रोकडे,
बांधोनी देऊळवाडा।
नाही सान नाही गाढा।।
न कळे कोणी कुण्या मुहुर्ती दिली तयाते ही सुमती।
सपार्वती ज्या वसे पर्वती तया पर्वती जन म्हणती।।१।।
काळी गंडकी शिळा चकाके जीत पाहता रूप दिसे।
श्री विष्णुची मुर्ती घडविली बघता जीवा जडे पिसे।।
दक्षिण भागी देवेश्वराचे बांधुन देवालय सान।
ज्येष्ठ सुमासी व्रज वनवासी तिथे स्थापिले श्री रमण।।
देव पुजिल्या दैव न चुकते पानिपताच्या रणांगणी।
भाऊ हरपला, पुत्र निमाला, अघटीत दैवाची करणी।।
नऊ लाख बांगडी फुटली। शोणित न्हाली भुमी त्या काळी।।
ढवळ्याच्या शेजारास, बांधिला पोवळा त्यास,
बाण अन् गुण न लागे खास।।
स्मशानवासी कैसा होय हा वृंदावासी रमापती।
सपार्वती ज्या वसे पर्वती त्या पर्वती जन म्हणती।।२।।
जवामर्दीचे शिक्षण द्याया महाराष्ट्रीच्या युवकांना।
सचिव माधव तेजःसंभव विचार अभिनव करी नाना।।
उदार पशुपति, विलासी यदुपति, हे न लाधले देव इथे।
शुरसेनानी कार्तिक मानी तोच रक्षिता समयाते।।
पौरुष्याची षडाननाची मुर्ती करवुनी नवलाची।
मंदीर बांधुन करी जो अर्चा, परमोत्साहे यथारूची।।
क्षयरोग माधवा जडे, अकल्पित घडे, नावरे रडे।।
जाऊनी थेउरामाजी, नेमुनि गणेशा फर्जी,
गुजरिली गुहावर अर्जी।।
व्यर्थ होय ते, मुका जिव तो, जाय त्यासवें रमासती।
सपार्वती ज्या वसे पर्वती तया पर्वती जन म्हणती।।३।।
पुण्यदंपती रमापती शापे पुढती एक दिनी।
स्कंद मंदिरावरी कोसळे लोळ विजेचा कडाडुनी।।
मुर्ती भंगली मंदिर पडले सदन जळाले निमिषात।
भोंडया भिंती अजुन देती साक्ष पहा त्या डोळ्यात।।
सभोवताली दृष्टी फेकली जरी विचक्षण घडीभरी।
गतकाळीचे विनष्ट वैभव अश्रु लोचनी उभे करी।।
आणुन मुर्ती गोजिरी, सुखद साजिरी, स्थापिली जरी।।
जाय विभव एकदा, भंगली मुक्त संपदा,
साधता काय ये कदा।।
भरल्या गोकुळी अक्काबाईचा फेर आला कालगती।
सपार्वती ज्या वसे पर्वती तया पर्वती जन म्हणती।।४।।
छत्रपतींच्या वजरातीवर जिथे चमकले मानधन।
एकापेक्षा एक विचक्षण विरमणी की नवनिपुण।।
दैव आमुचें रूपें माधवा त्या गादीचे योजाया।
धनी जे झटले सदैव आपुलें देह कातडे सखया।।
सवाई बाजी, भोजन गाजी भिक्षुक भटजी पोशिंदे।
साळु सखुचे चिमी ठमींचे बावनखणीचे साजिंदे।।
युद्ध जुंपता खडकीला, बघत बैसला त्या समयाला।।
उमापतीचे पायाशी, लावुन दुर्बीण डोळ्यांशी,
स्वजन प्रेतांच्या राशि।।
भला प्रजापती, दिला उमापती, अभिधा पशुपति सार्थचि ती।
सपार्वती ज्या वसे पर्वती तया पर्वती जन म्हणती।।५।।
पडक्या असती उघड्या भिंती स्थलास त्या म्हणती रमणा।
वाटत होते धन द्विजांना श्रावणात तेथे नाना।।
दुरदेशीचे वेदोभास्कर पुरस्कारुनी सन्माना।
पर्जन्याची वृष्टी होई साथीला वादळवारा।।
नृपवस्त्रे लेवुन सारी, नानांची बसली स्वारी,
मांडुनी ठाण निर्धारी।।
पाऊस जाई भानु प्रकाशे नवलाईपरी चमकृतीं।
सपार्वती ज्या वसे पर्वती तया पर्वती जन म्हणती।।६।।
जल पुरवाया नगरवासिया तळ निर्मिले पायतळी।
मंगलदायक सिद्धीविनायक वसे जलाशयी शुभदिनी।।
क्रीडानौकेमधे बसोनी सवाई माधव महादजी।
नानांसह नृपनिती खेळले तळ्यात या सहजासहजी।।
आजला तळे आटले, रान माजले, गवत उगवले।
पाण्याचा टिपुसही नुरला, डोळ्यांसी लावायला,
प्रगतीचा गाडा आला।।
त्या पाण्यासह पाणि पुण्याचे गेले दृश्य बदलले भवताली।
सपार्वती ज्या वसे पर्वती तया पर्वती जन म्हणती।।७।।
- कवी अनंततनय
© श्रेयस पाटील